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नाभावो विद्ययते सत:

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” यह कैसा अवसाद यह कैसी खुशी ” जैसे इंधन से अग्नि प्रज्वलित होती है और वही अग्नि उसी इंधन को जलाकर भस्म बना देती है जिससे प्रज्वन क्रिया समाप्त हो जाती है उसी तरह स्वाध्याय से ज्ञान में अनवरत बृद्धि होती है और वही ज्ञान एकदिन परमानंद में बदल जाता है।

निष्प्रभ, निष्क्रिय राख की तरह। जन्म और निधन का यह खेल देखते हुए बेरासी वसंत बीत गये। जन्म के समय लिखा थाः–

” कुलं पवित्रं जननीश्च धन्या, यस्मिन कुले वैष्णव नामधेयं। वह कुल पवित्र हो जाता है वह माता धन्य हो जाती है जब कुल में कोई वैष्णव विचारों से सम्पन्न बालक पैदा होता है। जन्म मरण जीव की सामान्य क्रिया है। वैष्णव विचारों से सम्पन्न बालक का पैदा होना एक विलक्षण क्रिया है जो उस बंश को पवित्र कर देती है जिस कुल में वह बालक जन्म लेता है जो परम वैष्णव मत का प्रचार प्रसार करता है। कोई अजर अमर इस धरती पर नहीं पैदा होता अपितु यहाँ सभी मरने के लिए ही पैदा होते हैं। हमारी स्मृतियों में सकल ब्रह्मांड अमिट रूप से छाया रहता यदि अन्त समय वैष्णव बिचार कौंध जाय तो जीवन धन्य हो जाय जीव का उद्धार हो जाय।”

वह कितना दयालु है जिसके हम अंश मात्र है लेकिन वह हमारी हर क्रियाओं में साक्षी रूप में हमारे साथ बना भी रहता है, हमारे पल पल की खबर रखता है। मनुष्य को
जन्म के समय एक शरीर के साथ उसका प्रारब्ध भी लगा रहता है और उस प्रारब्ध के साथ हमारी हर सांस जुड़ी हुई हैं। हम उस प्रारब्ध के साथ जीवन में कितने विबश नरीह प्राणी हैं। हमारा अहंक्कार जो हमारी मूल प्रकृति होती है जिससे इतर हम कुछ भी करने को स्वतंत्र नहीं है फलतः हम वही करते हैं जिसके लिए बने है। अपनी मूल प्रकृति से विमोहित होकर हीं हम क्रिया करते है। जाने कितने जन्मों के बाद यह जीवन अभी मिला है सबकुछ हमारी स्मृतियों में कहाँ रह पाता है।

यं यं चिन्तयति तं तं भावयति, यं यं भावयति तं तं करोति। जैसा चित्त चिन्तन करेगा वैसे ही भाव होगे और जो भायेगा वही किया जायेगा। आपकी सारी क्रियाओं का नियंत्रक आपका स्वभाव है। आपकी क्रिया हीं आपके जीवन की श्रेष्ठ उपलब्धि होती है।

अस्तुः—

भद्रमिच्छतःऋषयः! स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे।।
ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसन्नमन्तु।।

( अथर्ववेद )

अर्थात, हमारे तत्व द्रष्टा ऋषियों ने जीव कल्याण की भावना से ओतप्रोत होकर सुदीक्षा, तप का आश्रय लेकर राष्ट्र को बली और ऊर्जावान बनाने के मंत्रों का उद्घोष कर विनम्र भाव से देवों का आवाहन कर राष्ट्र की सुरक्षा की है।

गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है वह हमारा रचयिता परमेश्वर हमसे दूर कब रहता है वह तो हर क्षण अपनी रचना के साथ विचरण करता है। जन्म के समय भी वह हमारे पास था और मृत्यु के समय भी वह हमारे साथ होता है। यथाः–
” शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रमतीशवरः।
गृहित्वेतानि संयाति वायुगन्धा निवाशयात।।
वह तो जन्म के समय भी साथ था और जब शरीर से आत्मा का उत्क्रमण होता उस क्षण भी साथ रहकर आत्मा को चित्तवृत्तियों के साथ वैसे हीं उठा लेता है जैसे वायु गंध को उसके स्थान से उठा लेती है।

डॉ चंद्रशेखर पाण्डेय
(Retired)
Department Of Chemistry
Magadh University

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